आभ्यंतरिक स्थलाकृतियाँ (instrusive Topography) :- जब ज्वालामुखी के उद्गार के समय गैस एवं वाष्प की तीव्रता में कमी होती है। तो लावा धरातल के ऊपर न आकर धरातल के नीचे ही दरारों में प्रविष्ट होकर ठोस रूप धारण कर लेता है। परिणाम स्वरूप धरातल के नीचे अनेक स्थलरूपों का निर्माण होता है। इन्हें आंतरिक अथवा आभ्य्यंतरिक स्थलरूप कहते हैं। ये स्थल रूप निम्नलिखित है।
(1 ) बैथोलिथ
(2 ) लैकोलिथ
(3 ) फैकोलिथ
(4 ) लोपोलिथ
(5 ) डाइक
(6 ) सील
• बैथोलिथ (Batholith) :- बैथोलिथ जर्मन भाषा का शब्द है जिसका तात्पर्य Bathos अर्थात गहराई होता है। बैथोलिथ लम्बे, उभरे हुए तथा असमान आग्नेय शैलों के आकार होते हैं। ये प्रायः गुम्बद के आकार में पाए जाते हैं। जिनके किनारे खड़े ढाल वाले होते हैं तथा आधार तल अधिक गहराई में पाया जाता है। अपरदन द्वारा बैथोलिथ का ऊपरी भाग दिखाइए देने लग जाता है। परंतु इनका आधार कभी भी नहीं देखा जा सकता है। इसका ऊपरी भाग अत्यधिक असमान तथा उबड़ खाबड़ होता है। बैथोलिथ मुख्य रूप से ज्वालामुखी उद्गार वाले पर्वतीय क्षेत्रों में पाए जाते हैं। इनकी रचना में ग्रेनाइट चट्टानों का योगदान रहता है।
उदाहरण :- भारत में रांची के पठार पर धारवाड़ क्रम की अवसादी शैलों के नीचे आर्कियन युग में निर्मित वृहदाकार ग्रेनाइट बैथोलिथ पाए जाते हैं। इन्हें रांची बैथोलिथ कहा जाता है। लंबे समय तक अनाच्छादन के कारण यह वर्तमान समय में बैथोलिथ गुम्बदों के रूप में देखे जा सकते है।
• लैकोलिथ (Laccolith) :- लैकोलिथ जर्मन भाषा का शब्द है। जिसकी उत्पत्ति जर्मन भाषा के शब्द Laccos से हुई है। जिसका अर्थ Lithos अर्थात चट्टान होता है। लैकोलिथ लावा निर्मित वृहदाकार आकार के उत्तल चापाकार (Convex arch) गुम्बद होते है। इनका ढाल उत्तल होता है। लैकोलिथ मुख्यतः परतदार चट्टानों के मध्य में पाए जाते हैं। जब लावा के उदगार के समय गैसों के जोर से परतदार शैलो की ऊपरी परत उत्तल चाप (Convex arch) अथवा गुम्बद के रूप में परिवर्तित हो जाती है। तो ऊपर वाली मुड़ी हुई तथा निचली सीधी परत के मध्य खाली जगह निर्मित हो जाती है। जिसमें ज्वालामुखी राख, गैसें तथा लावा आदि भर जाते हैं। फलस्वरुप लैकोलिथ का निर्माण होता है। इसकी ऊपरी परत सैकड़ों मीटर से लेकर हजारों मीटर तक ऊपर मुड़ी हुई देखी जा सकती है।
नोट :- बैथोलिथ का निर्माण किसी भी चट्टान में हो सकता है। परंतु लैकोलिथ केवल परतदार चट्टानों के मध्य ही निर्मित होते है। इनका ऊपरी भाग ही दिखाई देता है। जिसके किनारे झुके हुए होते हैं।
उदाहरण :- • उत्तरी अमेरिका के पश्चिमी भाग में अनेक लैकोलिथ पाए जाते हैं।
• भारत के छोटा नागपुर पठार पर भी अनेक लैकोलिथ देखने को मिलते हैं।
• लोपोलिथ (Lopolith) :- लोपोलिथ जर्मन भाषा के लोपास शब्द से बना है। जिसका तात्पर्य एक छिछली बेसिन होता है। जब मैग्मा का जमाव धरातल के नीचे अवतल आकार की तश्तरीनुमा बेसिन के रूप में होता है तो इसे लोपोलिथ कहते है।
उदाहरण :- संयुक्त राज्य अमेरिका के ट्रांसवाल क्षेत्र में 480 किलोमीटर लम्बा लोपोलिथ पाया जाता है।
• फैकोलिथ (Phacolith) :- ज्वालामुखी उदगार के समय वलित पर्वतों की अपनति (Anticline) तथा अभिनति (Syncline) में मैग्मा का जमाव हो जाता है। इस क्रिया के फलस्वरुप निर्मित भूआकृति को फैकोलिथ कहते है।
• सिल (Sill) :- सिल आग्नेय चट्टानों का एक समूह होती है। जब मैग्मा का प्रवाह परतदार अथवा रूपांतरित शैलो की परतों के मध्य होता है, तो मैग्मा ठंडा होकर जम जाता है। इस प्रकार निर्मित स्थलाकृति को सिल कहते है। सिल की स्थिति मौलिक चट्टानों की परतों के समानांतर पायी जाती है। जब मैग्मा के जमाव की मोटाई अधिक होती है, तो इसे सिल कहते है।
• शीट (sheet) :- जब मैग्मा के जमाव की परत पतली होती है तो उसे शीट कहते है।
सिल की मोटाई कुछ सेंटीमीटर से लेकर कई किलोमीटर तक पाई जाती है। सिल आस पास की आग्नेय चट्टानों से अधिक कठोर होती है।समीपवर्ती चट्टानों के अपरदन के कारण सिल दिखाई देने लगती है।
• डाइक (Dyke) :- डाइक मुख्यरूप से सिल के समान ही होती है। परंतु ये सिल की अपेक्षा लंबी तथा पतली होती है। सिल एवं शीट के विपरीत डाइक लम्बवत रुप में पायी जाती है अर्थात चट्टानों की परतों में लंबवत रूप में पायी जाती है। डाइक एक दीवार की तरह आग्नेय चट्टान का रूप ही होती है। इसकी मोटाई कुछ सेंटीमीटर से लेकर सैकड़ों मीटर तक पाई जाती है तथा लंबाई कुछ मीटर से लेकर कई किलोमीटर तक होती है। डाइक अपने समीपवर्ती चट्टानों की अपेक्षा अधिक कठोर होती है। जिस कारण इसका अपरदन अधिक नहीं हो पाता है। इसके विपरीत कुछ डाइक मुलायम भी होती है। जिनका अपरदन शीघ्र हो जाता है। डाइक के मुख्यतः तीन रूप देखने को मिलते है।
(1) जब डाइक की चट्टानें समीपवर्ती चट्टानों से कमजोर होती है। तो डाइक का ऊपरी भाग अपरदन के कारण कट जाता है तथा एक गर्त का निर्माण हो जाता है।
(2) जब डाइक की चट्टानें समीपवर्ती चट्टानों से कठोर होती है। तो अपरदन के कारण समीपवर्ती चट्टानें कट जाती है तथा डइक ऊपर की ओर निकली हुई दिखाई देती है।
(3) जब डाइक के आसपास की चट्टानें समान रूप से कठोर तथा मुलायम होती है। तो डाइक का कटाव समीपवर्ती चट्टानों के अनुरूप ही होता है।
• गेसर (Geyser) :- गेसर या उष्णोत्स एक प्रकार का गर्म जल का स्रोत होता है। जिससे समय-समय पर वाष्प तथा गर्म जल की फुहारें निकलती रहती है। गेसर शब्द आइसलैंड की भाषा के गेसिर (Gusher) शब्द से बना है। जिसका तात्पर्य तेजी से चलता हुआ अथवा फुहार छोड़ने वाला होता है। गेसर शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम आइसलैंड के उष्ण जल के स्रोत जल के ग्रेट गेसर के उछलते हुए जल को प्रदर्शित करने के लिए किया गया था। विश्व के विभिन्न ज्वालामुखी क्षेत्रों में ज्वालामुखी उद्गगार के समय दरारों तथा सुराखों से होकर कुछ अवकाश के बाद वाष्प एवं गर्म जल फुहार के रूप में अधिक ऊंँचाई तक निकलता रहता है। इसे गेसर कहते हैं।
• गेसर ज्वालामुखी क्रिया का गौंण रूप है। कभी-कभी गेसर की ऊँचाई सैकड़ों फिट तक होती है।
• " गेसर सविराम गर्म जल के स्रोत होते हैं। जिनमें समय समय पर गर्म जल की फुहारें तथा वाष्प निकलती है। "
• उदाहरण :-
1. न्यूजीलैंड का वायमान्गु गेसर।
2. उत्तरी अमेरिका में गेसर येलोस्टोन नेशनल पार्क में पाए जाते हैं।
इसके अलावा गेसर एशिया में तिब्बत, यूरोप में आइसलैंड तथा न्यूजीलैंड में पाये जाते हैं।
• दक्षिण अमेरिका तथा अफ्रीका में गेसर का अभाव पाया जाता है।
• अजोर्स द्वीपों पर कुछ गए गेसर पाये जाते हैं।
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