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Fronts, types of Fronts , formation ,classification of fronts, Frontogensis, Frontolysis, warm front cold front, occluded front, stationary front, frontal zones of the word, वाताग्र :- अर्थ ,परिभाषा, उत्पत्ति प्रक्रिया , वाताग के प्रकार :- उष्ण वाताग्र, शीत वाताग्र ,अधिष्विट वाताग, स्थाई वाताग्र , वाताग में पवन प्रवाह क्रम, वाताग्र प्रदेश, वाताग्रों की विशेषताऐं।

वाताग्र अर्थ एवं परिभाषा (Fronts Meaning and Definition) :- वाताग्रों का जलवायु की दृष्टि से अत्यधिक महत्व होता है।इनके कारण ही विश्व के विभिन्न भागों मे मौसमी परिवर्तन देखने को मिलते हैं। वाताग्र किसी भी स्थान की जलवायु की दशओं को अत्यधिक प्रभावित करते हैं । वाताग्रों का जलवायु दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्व होता है। वाताग्रों का चक्रवात और प्रतिचक्रवातो की उत्पत्ति में महत्वपूर्ण योगदान रहता है। वाताााग्रों के कारण ही वैश्विक स्तर पर जलवायु में परिवर्तन देखने को मिलते है।
📝•• वाताग्र :-दो विपरीत स्वभाव वाली वायुराशियों के मिलने से निर्मित ढ़लुवा सतह को वाताग्र कहते हैं। 
• वाताग्रों का निर्माण दो विभिन्न स्वभाव वाली वायुराशियों के [ तापमान, आर्द्रता , घनत्व, गति तथा दिशा संबंधी विशेषताओं के संदर्भ में ] आपस में मिलने से निर्मित ढ़लुवा सतह के कारण होता है।
• वाताग्र निर्माण में सम्मिलित वायु राशियों में एक वायु राशि उष्ण एवं दूसरी वायु राशि ठंडी होती है जिनके परस्पर संपर्क में आने से वाताग्रों का निर्माण होता है।
• वाताग्रों का निर्माण उन क्षेत्रोंं में होता है। जहां वायुराशियों के तापमान में सर्वाधिक अंतर पाया जाता है। 
• वाताग्र हमेशा निम्न वायुदाब वाले क्षेत्रों में निर्मित होतेे हैं। वाताग्रों का निर्माण मुख्यतः मध्य अक्षांशों में होता है । 
• पृथ्वी की अक्षीय गति के कारण वाताग्र  
कुछ कोण पर झुका होता है। यह कोण भूमध्यरेखा से ध्रुवों की ओर जाने पर बढ़ता जाता है। 
• भूमध्य रेखा पर वाताग्र का ढ़ाल शून्य होता है।

 📝 •• वाताग्र निर्माण तथा वाताग्र प्रदेश :- 
वाताग्र जनन एवं वाताग्र क्षय (नष्ट होने) की प्रक्रिया द्वारा चक्रवात एवं प्रतिचक्रवातो  की उत्पत्ति होती है। वाताग्र मौसम संबंधी विशिष्ट परिस्थितियों का निर्माण करते हैं, अतः ये  जलवायु की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण होते हैं। • फ्रंटोजेनेसिस (Frontogensis):- वाताग्र के निर्माण की प्रक्रिया को फ्रंटोजेनेसिस या वाताग्र जनन कहा जाता है।
 • फ्रन्टोलेसिस ( Frontolysis):- वाताग्र के नष्ट होने या समाप्त होने की प्रक्रिया को फ्रंटोलेसिस या वाताग्र क्षय कहते हैं।
वाताग्र प्रदेश (Frontal zone):-  जब दो विभिन्न स्वभाव वाली वायुराशियां विभिन्न क्षेत्रों से या विभिन्न दिशाओं से आकर किसी स्थान पर अभिसरित होती है, तो इन वायुराशियों के मध्य में निर्मित विस्तृत संक्रमणीय प्रदेश (Transitional Zone) को वाताग्र प्रदेश कहते है।
ये  वाताग्र प्रदेश ही विभिन्न वाताग्रों की उत्पत्ति के केंद्र होते हैं।
📝 ••  वाताग्र निर्माण की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कारक:-
तापमान एवं आर्द्रता :-  वाताग्रो का निर्माण दो विपरीत स्वभाव वाली वायुराशियों, जिनमें  तापमान एवं आर्द्रता संबंधी अंतर पाया जाता है, इनके मिलने से होता है। अतः वाताग्र के निर्माण के लिए तापमान एवं  आर्द्रता संबंधी विभिन्नता रखने वाली दो वायुराशियों का होना आवश्यक है। • वायुराशियों का अभिसरण :-  वाताग्रों के निर्माण  लिए दो विपरीत स्वभाव की वायु राशियों का अभिसरण होना आवश्यक है। वायुराशियों का अभिसरण वाताग्र उत्पत्ति में सहायक होता है।  • वायुराशियों का अपसरण वाताग्र के निर्माण में बाधक होता है।
✍️ नोट :- " भूमध्य रेखा पर व्यापारिक पवनों का अभिसरण होता है , परंतु दोनों वायुराशियों के समान स्वभाव वाली होने के कारण वाताग्र का निर्माण नहीं होता है। "
•  गतिक कारक :-  विभिन्न वायुराशियों के निर्माण में गति कारक भी महत्वपूर्ण होता है। वाताग्रों के  निर्माण के लिए विभिन्न वायुराशियों का अपने मूल स्थान से अन्य क्षेत्रों की ओर गतिशील होना आवश्यक है। 
📝 •• वाताग्रों की विशेषताएंँ  :-  वाताग्र ढ़लुवा सतह होती है। वाताग्र न तो धरातलीय सतह के समानांतर होते हैं, न ही सतह के लम्बवत पाए जाते हैं। अपितु वाताग्र कुछ कोण पर झुका होता है।
• वाताग्रों के ढाल पर पृथ्वी की अक्षीय गति का प्रभाव पड़ता है।
• वाताग्र का ढ़ाल भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर जाने पर बढ़ता जाता है। 
•भूमध्य रेखा पर वाताग्र का ढाल शून्य होता है।  • वाताग्रों  का निर्माण दो विपरीत स्वभाव वाली वायुराशियों के अभिसरण के कारण होता है। अभिसरण की प्रक्रिया में  ठंडी,भारी एवं सघन वायुराशि उष्ण  एवं हल्की वायुराशि को ऊपर उठा देती है। जिससे वाताग्र का निर्माण होता है। 
• वायुराशियांँ त्रिस्तरीय (Three Dimensional) होती है। अतः  इनसे बनने वाले वाताग्र भी त्रिस्तरीय होते हैं।
• वाताग्रों  का क्षैतिज एवं ऊर्ध्वाधर विस्तार पाया जाता है। 
• वाताग्रों से वायुमंडलीय तूफानों, चक्रवातो एवं तड़ितझंझाओं का निर्माण होता है। अतः ये किसी भी स्थान के मौसम को अत्यधिक प्रभावित करते हैं ।
📝 •• वाताग्रों में पवन प्रवाह क्रम :-  पेटरसन महोदय ने वाताग्रों में चार प्रकार के पवन प्रवाह क्रम का उल्लेख किया है।
(1.) स्थानांतरणी पवन प्रवाह क्रम (Translatory Circulation) :-  इस पवन प्रवाह में हवाऐं क्षैतिज दिशा में एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रवाहित होती है। स्थानांतरणी पवन प्रवाह क्रम के कारण हवा में विपरीत दिशा उत्पन्न नहीं हो पाती है, क्योंकि समताप रेखाएं समानांतर तथा एक दूसरे से दूर दूर होती है। अतः इस पवन प्रवाह क्रम में वाताग्रों का निर्माण नहीं होता है। 
(2.) घूर्णन पवन प्रवाह क्रम ( Rotatory Circulation) :- इस पवन प्रवाह क्रम में हवाऐं चक्रवातीय या प्रतिचक्रवातीय क्रम में प्रवाहित होती है। अतः इस प्रवाह क्रम में भी वाताग्रों का निर्माण नहीं होता है।
(3.) अभिसरण तथा अपसरण पवन प्रवाह क्रम ( Convergence or Divergence wind circulation) :- 
(1.) अभिसरण प्रवाह क्रम :- इस पवन प्रवाह क्रम में हवायें चारों ओर से एक बिंदु पर आकर मिलती है। इस स्थिति में तापमान की विपरीत स्थिति निर्मित हो जाती है , परंतु हवाऐं एक रेखा के सहारे न होकर एक बिंदु पर होती है, अतः वाताग्रों की उत्पत्ति नहीं हो पाती है।
(2.) अपसरण प्रवाह क्रम :- इस पवन प्रवाह की प्रक्रिया में हवाऐं एक केंद्र से चारों ओर प्रवाहित होती है। इस प्रक्रिया में भी वाताग्रों की उत्पत्ति नहीं हो पाती है।
(4.) विरूपणी पवन प्रवाह क्रम (Deformetory wind Circulation):- विरूपणी पवन प्रवाह क्रम में दो विपरीत तापमान एवं आर्द्रता वाली हवााऐ अभिसरित होती है। जो एक रेखा के सहारे क्षैतिज दिशा में फैलती है। हवाऐं जिस रेखा के सहारे बाहर की ओर फैलती है। उसे बाह्र प्रवाह अक्ष रेखा (Axis of out flow or Axis of dialation) कहा जाता है।
 दूसरे अक्ष को अंतःप्रवाह अक्ष ( Axis of inflow) कहते हैं।
✍️ विरूपणी पवन प्रवाह क्रम वाताग्रों के निर्माण के लिए अनुकूल होता है।

📝 •• वाताग्र के प्रकार (Types of Front) :- वाताग्रों को उनकी विशेषताओं के आधार पर चार भागों में विभाजित किया गया है।
(1.) उष्ण वाताग्र (Warm Front) 
(2.) शीत वाताग्र (Cold Front) 
(3.)अधिविष्ट वाताग्र (Occluded Front) 
(4.) स्थायी वाताग्र (Stationary Front) 
[ 1.]उष्ण वाताग्र (Warm Front):- उष्ण वाताग्र में वाताग्र के सहारे गर्म तथा हल्की वायु आक्रमक होती है। जब उष्ण वायु ठंडी तथा भारी वायु के प्रदेश में प्रवेश करती है, तो उष्ण तथा हल्की वायु ठंडी एवं भारी वायु के ऊपर तीव्रता से ऊपर की ओर चढ़ती है। जिससे एक ढ़लुवा सतह का निर्माण होता है। इस प्रकार निर्मित ढ़लुवा सतह को उष्ण वातग्र कहते हैं।
मध्य अक्षांशों में उष्ण वाताग्र का ढा़ल 1 : 100 से 1 : 400  के मध्य  में पाया जाता है। उष्ण वाताग्र का ढा़ल मंद (हल्का ) होने के कारण वर्षा लंबे समय तक धीमी गति से होती रहती है। उष्ण वातग्र में पक्षाभ स्तरीय मेघों, उच्च स्तरीय मेघों तथा पक्षाभ मेघों का निर्माण होता है। जिनसे लंबे समय तक वर्षा होती है।
[2.] शीत वाताग्र (Cold Front) :- जब वाताग्र के सहारे ठंडी तथा भारी वायु आक्रामक होती है। तो यह गर्म तथा हल्की वायु के प्रदेश में प्रवेश कर गर्म तथा हल्की वायु को ऊपर उठा देती है। इस प्रकार निर्मित ढ़लुवा  सतह को शीत वाताग्र कहते हैं।
 शीत वाताग्र का ढा़ल 1 : 25 से 1 : 100 के मध्य पाया जाता है। शीत वाताग्र के ढा़ल के अधिक होने के कारण अल्प समय में ही अधिक व तीव्र वर्षा होती है। वर्षा तड़ित झंझाओ एवं बिजली की चमक के साथ होती है। इन वाताग्रों के तीव्र गति से आगे बढ़ने के कारण अल्प समय में ही मौसम साफ एवं सुहावना हो जाता है।
[3.] अधिविष्ट वाताग्र (Occluded Front) :- जब शीत वाताग्र तीव्र गति से आगे बढ़कर उष्ण वाताग्र में मिल जाता है। तो उष्ण वायु का संपर्क नीचे से समाप्त हो जाता है। इस प्रकार निर्मित वाताग्र को अधिविष्ट वाताग्र कहते हैं। इन वाताग्रों में उष्ण एवं शीत दोनों वाताग्रों के गुण पाए जाते हैं।
[4.] स्थायी वाताग्र (Stationary Front) :-
जब दो वायु राशियांँ वाताग्र के रूप में अलग होती हैं , तो ये एक दूसरे के समानांतर हो जाती है ।इससे वायु ऊपर नहीं उठ पाती है। इस प्रकार निर्मित वाताग्र को स्थायी वाताग्र कहते हैं।
स्थायी वाताग्र में बादलों का निर्माण नहीं होता है । इस कारण वर्षा नहीं हो पाती है।
• इन वाताग्रों में चक्रवातो़  का निर्माण नहीं होता है।
📝 •• वाताग्र प्रदेश (Frontal Zones of the world):- जब किसी प्रदेश में दो विपरीत स्वभाव वाली वायुराशियाँ विभिन्न दिशाओं से  आकर अभिसरण करती है, तो मध्य में निर्मित विस्तृत संक्रमणीय प्रदेश को वाताग्र प्रदेश कहते हैं। विश्व में मुख्य रूप से तीन वाताग्र प्रदेश पाए जाते हैं। ये निम्नलिखित है।
(1.) ध्रुवीय वाताग्र प्रदेश (Polar Frontal Zone)
(2.) आर्कटिक वाताग्र प्रदेश ( Arctic Frontal Zone )
(3.) अंतरा उष्णकटिबंधीय वाताग्र प्रदेश 
( Intertropical Frontal Zone )

(1.) ध्रुवीय वाताग्र प्रदेश :- 
ध्रुवीय वाताग्र प्रदेश का विस्तार 30 डिग्री से 40 डिग्री अक्षांशों के मध्य दोनों गोलाद्धो में पाया जाता है। इन वाताग्रों का निर्माण ध्रुवीय ठंडी वायुराशि एवं उष्णकटिबंधीय गर्म, हल्की आर्द्र वायु राशियों के मिलने के कारण होता है। ध्रुवीय वाताग्र का निर्माण उत्तरी अटलांटिक और उत्तरी प्रशांत महासागरीय भागों में अधिक होता है। यह वाताग्र शीतकाल में अधिक सक्रिय होते हैं।
 (2.) आर्कटिक वाताग्र प्रदेश :- आर्कटिक क्षेत्र में महाद्वीपीय हवाओ तथा ध्रुवीय सागरीय हवाओं के मिलने से वाताग्रों का निर्माण होता है। ये वाताग्र अधिक सक्रिय एवं प्रभावी नहीं होते हैं। क्योंकि यहाँ पाई जाने वाली वायु राशियों के तापमान में अधिक अंतर नहीं होता है। इन वाताग्रों का निर्माण उत्तरी अमेरिका के उत्तरी भागो एवं यूरेशिया के उत्तरी भागों में होता है। (3.) अंतरा उष्णकटिबंधीय वाताग्र प्रदेश :- अंतरा उष्णकटिबंधीय वाताग्र प्रदेश का विस्तार भूमध्य रेखा के दोनों ओर 10 डिग्री अक्षांशों (भूमध्य रेखीय निम्न वायुदाब पेटी में) में पाया जाता है। इस क्षेत्रों में वाताग्रों का निर्माण उत्तरी पूर्वी एवं दक्षिणी पूर्वी व्यापारिक पवनों के अभिसरण के कारण होता है। यह प्रदेश सूर्य के उत्तरायण एवं दक्षिणायन स्थिति के कारण उत्तर व दक्षिण की ओर खिसकता है। इस प्रदेश में हवाऐ अभिसरण के कारण ऊपर उठकर पर्याप्त वर्षा करती है।
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