• भूकम्प विज्ञान(seismology) :- भूूूूकम्प विज्ञान में भूकम्पीय लहरों का सिस्मोग्राफ यंत्र द्वारा अंकन करके अध्ययन किया जाता है। भूकंप की लहरों के इस अध्ययन को सिस्मोग्राफी कहा जाता है।
• भूकम्प मूल (Focus) :- भूकंप की घटना पृथ्वी केेे धरातल के केेे नीचे संपन्न होती है। पृथ्वी के आंतरिक भाग में जहांँ सर्वप्रथम भूकम्प की उत्पत्ति होती है। उसे भूकम्प मूल या उत्पत्ति केन्द्र (Seismic focus)कहते हैं। यह भूगर्भ मेंं स्थित वह स्थान होता है जहांँ सेेे भूकम्प से उत्पन्न लहरे प्रसारित होती है।
• भूकम्प केंद्र Epicenter or hypocenter) :- पृथ्वी के धरातल पर सर्वप्रथम जहांँ भूकम्प की लहरों का अनुभव किया जाता है। उसे भूकम्प केंद्र अथवा अधिकेंद्र (epicenter) कहते हैं। यह भूकंप मूल के ठीक ऊपर धरातल पर स्थित होता है। यहांँ पर सर्वप्रथम भूकम्प की लहरों का अनुभव किया जाता है। भूकम्प अधिकेंद्र सदैव भूकम्प मूल के ठीक ऊपर समकोण पर स्थित होता है तथा भूकम्प से प्रभावित क्षेत्रोंं में यह भाग भूकम्प मूल से सबसेेेे नजदीक होता है। अधिकेंद्र पर लगे सिस्मोग्राफ यंत्र द्वारा भूकम्पीय लहरों का अंकन किया जाता है। भूकंप के अधिकेंद्र पर भूकम्पीय लहरों का प्रभाव सर्वप्रथम होता है। अधिकेंद्र अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा सबसे अधिक प्रभावित होता है। क्योंकि यहांँ पर लहरों की तीव्रता सर्वाधिक होती है। 26 जनवरी 2001 में भुुज (कच्छ, गुजरात) के प्रचंड भूकंप का अधिकेंद्र भुज में स्थित था। जिस कारण भुज, अंजार नगरों मेंं सर्वाधिक हानि हुई थी। जबकि अहमदाबाद के दूर होनेेे के कारण कम हानि हुई। जैसे-जैसे अधिकेंद्र् से दूर जाते हैं तो वह भूकम्पीय लहरों की तीव्रता कम होने लगती है। भूकम्पीय लहरों काा मार्ग प्रायः वृत्ताकार या अंडाकार होताा है।
• भूकम्पीय लहरें (Seismic waves):- भूकम्प की क्रिया के फलस्वरुप उत्पन्न होने वाली लहरों को भूकम्पीय लहरें कहते हैं। भूकंप की लहरों की प्राय तीन दशाऐं होती है।
(1) सर्वप्रथम क्षीण कंपन होता है। कभी-कभी यह कंपन इतना कमजोर एवं क्षीण होता है कि सिस्मोग्राफ द्वारा इसका अंकन नहींं हो पता है। इस प्रकार केेे कंपन को प्राथमिक कंपन कहते हैं। (2) प्रथम कंपन केेेे बाद अचानक शीघ्र ही दूसरा कंपन होता है। यह कंपन अधिक तीव्र होताा है। इसे द्वितीय प्राथमिक कंपन कहते हैं।
(3) तृतीय कंपन :- यह सर्वाधिक तीव्र कंपन होता है। इसमें कंपन की गति सर्वाधिक होती है। इसे प्रधान कंपन कहते है। इन तीन दशाओं के आधार पर भूकम्पीय लहरों को तीन भागों में विभाजित कियाा गया है। भूकम्प के समय पृथ्वी के आंतरिक भाग में तीन प्रकार की लहरों की उत्पत्ति होती है। ये लहरें इस प्रकार हैं।
(1.) प्राथमिक अथवा अनुदैर्ध्य लहरें (Primary or longitudinal or Compressional waves or P-Waves)
(2.) आडी़ अथवा गौंण लहरें (Secondary or Transverse or Distortional or S-waves )
(3.) धरातलीय लहरें (Surface or Long period waves, L-waves )
(1.) प्राथमिक व अनुदैर्ध्य लहरें (Primary or longitudinal or Compressional waves or P-Waves) :-
• इन तरंगों की उत्पत्ति भूकम्प के समय सर्वप्रथम होती है,अतः इन्हें प्राथमिक तरंगे कहते हैं।
• सर्वप्रथम लघु अथवा कमजोर कंपन होता है इसे प्राथमिक कंपन कहते हैं पीले रे प्राथमिक कंपन को प्रदर्शित करती है।
• इन तरंगों में कणों की गति लहर की रेखा की सीध में होती है।
• इन लहरों की गति 8 किलोमीटर प्रति सेकंड होती है।
• ये तरंगे भूकम्प मूल से उत्पन्न होती है।
• प्राथमिक तरंगे सर्वाधिक वेगवन होती है।
• ये तरंगे ठोस भाग में तीव्र गति से प्रवाहित होती है।
• इन तरंगों की गति तरल माध्यम में कम हो जाती है।
• प्राथमिक तरंगे ध्वनि तरंगों की भांति चलती है।• ये तरंगे सबसे पहले धरातल पर पहुंचती है।
• ये तरंगे ठोस, द्रव, गैस तीनों माध्यमों से गुजर सकती है।
• ये तरंगे भूकम्प के झटके के 11.8 मिनट बाद पहुंचती है।
• ये तरंगे सबसे लंबे मार्ग का अनुसरण करने के कारण धरातल तक पहुंचते-पहुंचते इनका प्रभाव अत्यधिक कम हो जाता है।
• ये लहरें अधिक विनाशकारी नहीं होती है।
• प्राथमिक लहरों की गति s-wave की तुलना में 66% अधिक होती है।
(2.) अनुप्रस्थ(आडी़) या गौंण तरंगे (Secondary or Transverse or Distortional or S-waves ) :-
• ये तरंगे प्रकाश तरंगों या जल तरंगों की भांति चलती है।
• ये तरंगें द्वितीय कंपन को प्रदर्शित करती है।
• ये केवल ठोस माध्यम में ही चल सकती है।
• इन तरंगों की गति 5 किलोमीटर प्रति सेकंड होती है।
• ये तरंगे मध्यमंडल के बारे में विस्तृत जानकारी देती है।
• ये लहरें तरल माध्यम में लुप्त हो जाती हैं।
• प्राथमिक तरंगों से इनकी गति 40% कम होती है।
• इन तरंगों को लम्बवत तरंग भी कहा जाता है। (3.) धरातलीय तरंगे ( Surface or Long period waves, L-waves ) :-
• धरातलीय लहरों की उत्पत्ति प्राथमिक लहरों के सतह या ऐपीसेंटर पर टकराने के कारण होती है।
• ये लहरें पृथ्वी के ऊपरी भाग को ही प्रभावित करती हैं।
• ये तरंगे मुख्य कंपन को प्रदर्शित करती हैं।
• ये लहरें सबसे लंबा मार्ग तय करती है।
• इन लहरों की गति कम होती है। इनकी गति 3.2 किलोमीटर प्रति सेकंड होती है।
• धरातलीय लहरे सर्वाधिक विनाशकारी होती है।
• सिस्मोग्राफ यंत्र (Seismograph) :- भूकम्पीय लहरों का अंकन सिस्मोग्राफ यंत्र द्वारा किया जाता है। इस यंत्र द्वारा भूकम्पीय लहरों की तीव्रता का अंकन किया जाता है। इस यंत्र द्वारा भूकंप के लहरों की की गति तथा उनके उत्पत्ति स्थान एवंं प्रभावित क्षेत्रों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है। भारत में पुणेेे, मुंबई, देहरादून दिल्ली ,कोलकाता आदि मे भूकम्प लेखन यंत्रों की स्थापना की गई है।
• भूकम्पपीय लहरों की तीव्रता का अंकन करने के तीन पैमाने है।
1. राॅशि फेरल स्केल (Rassi feral scale ) :- इसका मापक 1 से 11 अंको तक होता है।
2. मरकेली स्केल (Mercli scale) :- यह अनुभव प्रधान स्केल है। इसका मापक 0 से 12 अंकों तक का होता है।
3. रिक्टर स्केल (Richter scale) :- यह गणितीय मापक है। इसकी तीव्रता 0 से 9 अंकों तक होती है। इस मापक में प्रत्येक अगली इकाई पिछली इकाई की तुलना में 10 गुना अधिक तीव्रता रखती है। वर्तमान में इसी मापक का उपयोग किया जाता है।
• सम भूकम्पीय रेखा या भूकम्प समाघात रेखा (Iso-Seismal shock line ):- समान भूकम्प की तीव्रता वाले स्थानों को मिलाने वाली रेखा को भूकम्पीय समाघात रेखा कहा जाता है।
इन समाघात रेखाओं का पथ अधिकेंद्र के ऊपर आधारित होता है। यदि अधिकेंद्र एक बिंदु होता तो वहाँ सेे उत्पन्न समाघात रेखाएंं वृत्ताकार होती परंतु ऐसा नहीं है। अधिकेंद्र एक बिंदु न होकर एक दरार के रूप में या एक लंबी रेखा के रूप में होता है। अतः समाघात रेखाएं अंडाकार होती है।
• होमोसिस्मल रेखा (Homoseismal line) :- एक ही समय पर आने वाली भूकम्पीय क्षेत्र को मिलाने वाली रेखा को होमोसेसमल रेखा कहते हैं।
• भूकम्पीय छाया क्षेत्र (Seismic shadow zones) :- जिस स्थान पर किसी भी भूकम्पीय तरंग का अभीलेखन नहीं होता है। उसे भूकम्प का छायाक्षेत्र कहते हैं।
• भूकम्पलेखी (Seismograph) अधिकेंद्र से 105 डिग्री के भीतर किसी भी दूरी पर प्राथमिक एवं द्वितीयक तरंगों का अभिलेखन करते हैं।
• भूकम्पलेखी केंद्र से 145 डिग्री से दूर केवल प्राथमिक तरंगों का ही अभिलेखन कर पाता है। इस प्रकार 105 डिग्री से 145 डिग्री के बीच का क्षेत्र जहांँ पर किसी भी तरंग का अभिलखन नहीं होता है। प्राथमिक तरंगों व द्वितीयक तरंगों के केंद्रों के लिए छायाक्षेत्र होता है।
• भूकम्पीय तरंगों की गति तथा भ्रमण पथ के आधार पर पृथ्वी के आंतरिक भाग के विषय में जानकारी मिलती है। भूकम्पीय लहरें ठोस भाग से होकर गुजरती है तथा एक ही स्वभाव वाले ठोस भाग में ये लहरें एक सीधी रेखा में सीधे मार्ग से चलती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि यदि पृथ्वी एक ही प्रकार की घनत्व वाली चट्टानों से निर्मित एक ठोस भाग होती तो भूकंप की लहरें समान गति से पृथ्वी के अंतरतम तब तक एक सीधी रेखा में पहुंच जाती। परंतु भूकम्प केंद्रों पर इन लहरों के अंकन से यह स्पष्ट होता है कि ये लहरें एक सीधी दिशा में न चल कर वक्राकार मार्ग का अनुसरण करती है। इससे प्रमाणित होता है कि पृथ्वी के अंतरतम के घनत्व में विभिन्नता पाई जाती है। इस घनत्व की विभिन्नता के कारण ही लहरें परावर्तित होकर वक्राकार मार्ग का अनुसरण करती है।
• S लहरें तरल पदार्थ से होकर नहीं गुजरती है। • ओल्डहम ने 1909 में प्रमाणित किया कि भूकम्प केंद्र से 120 डिग्री की दूरी पर Sलहरें लुप्त हो जाती है तथा प्राथमिक लहरें अत्यधिक दुर्बल हो जाती है। पृथ्वी के अंतरतम में S लहरों का पूर्णतया अभाव पाया जाता है। इस आधार पर प्रमाणित होता है, कि पृथ्वी के आंतरिक भाग में तरल अवस्था में एक परत है, जो 2900 किलोमीटर से अधिक गहराई में केंद्र के चारों ओर विस्तृत है। इस आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि पृथ्वी के कोर का लोहा तथा निकेल तरल अवस्था में होगा।
• भूकम्प के गति के आधार पर तरंगों का विभाजन :- पृथ्वी के आंतरिक भाग में चट्टानों के घनत्व में अंतर के कारण भूकम्प पर लहरों की गति में भी अंतर आता आ जाता है। गति के आधार पर भूकम्पीय लहरों को तीन युग्मों में विभाजित किया गया है।
(1.) P-Waves एवं S-wave :- इन तरंगों की गति सर्वाधिक होती है।
(2.) Pg-wave एवं Sg-wave :- इन तरंगों की गति सबसे कम होती है।
(3.) P*-wave एवं S*-wave:- इन तरंगों की गति ऊपर लिखित तरंगों के मध्य की होती है। इस प्रकार भूकम्पीय तरंगों की गति के आधार पर प्रमाणित होता है, कि पृथ्वी के अंदर ऊपरी परत के नीचे विभिन्न परतें पाई जाती है। जिनके घनत्व में अंतर पाया जाता है।
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📝.. भूकम्पीय लहरों के आधार पर पृथ्वी की परतें :- भूकम्पीय लहरों के आधार पर पृथ्वी की आंतरिक भाग को तीन परतों विभाजित किया गया है।
(1.) स्थलमंडल (Lithosphere) :- स्थलमंडल की गहराई भूपर्पटी से 100 किलोमीटर की गहराई तक मानी गई है। स्थलमंडल का घनत्व 3.5 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर है। स्थलमंडल में ग्रेनाइट चट्टानों की प्रधानता है। इसमें सिलिका एवं एलुमिनियम तत्व सर्वाधिक पाये जाते हैं।
(2.) पायरोस्फीयर (Pyrosphere) :- इस परत को मिश्रित मंडल भी कहते हैं। इस परत की गहराई 100 से 2880 किलोमीटर के मध्य पाई जाती है। इस परत का घनत्व 5.6 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर है। इस परत का निर्माण बेसाल्ट आग्नेय चट्टानों से हुआ है। इस परत में सिलिका एवं मैग्नीशियम पदार्थों की प्रधानता है
(3.) बैरीस्पीयर (Barysphere) :- इस परत की गहराई 2880 किलोमीटर से पृथ्वी के केंद्र तक पाई जाती है। इस परत में लोहा एवं निकेल पदार्थों की प्रधानता है। इस परत का घनत्व 8 से 11 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर के मध्य पाया जाता है।
📝... पृथ्वी की आंतरिक भाग का आधुनिक वर्गीकरण :- भूकम्पीय लहरों की गति एवं उनके भ्रमण पथ के वैज्ञानिक अध्ययन एवं विश्लेषण के आधार पर तथा IUGG (International Union of Geodesy and Geo-physics) के शोधों के आधार पर पृथ्वी की आंतरिक भाग को तीन वृहत्त मंडलों में विभाजित किया गया है।
(1.) क्रस्ट (Crust)
(2.) मैण्टिल (Mantle)
(3.) क्रोड़ (Core)
(1.) क्रस्ट (Crust) :-
• यह ठोस पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत है।
• यह परत बहुत भंगुर(Brital) है।
• महासागरों के नीचे इस परत की मोटाई महाद्वीपों की तुलना में कम पाई जाती है। महासागरों में क्रस्ट की मोटाई 5 से 10 किलोमीटर के मध्य पाई जाती है। जबकि महाद्वीपों में इसकी मोटाई 30 किलोमीटर पायी जाती है।
• महाद्वीपीय क्रस्ट का निर्माण ग्रेनाइट से हुआ है, जबकि महासागरीय क्रस्ट का निर्माण बेसाल्ट आग्नेय चट्टानों से हुआ है।
• महासागरीय क्रस्ट का घनत्व 2.7 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर है, जबकि महाद्वीपीय क्रस्ट का घनत्व 3 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर है।
• क्रस्ट को दो भागों में विभाजित किया गया है। (अ) ऊपरी भूपर्पटी (Upper Crust)
(ब) निचली भूपर्पटी (Lower Crust)
• कोनार्ड असंबद्धता (Conrad Discontinuity) :- ऊपरी भूपर्पटी एवं निचली भूपर्पटी के मध्य प्राथमिक लहरों की गति में अंतर आ जाता है। ऊपरी क्रस्ट में प्राथमिक तरंगों की गति 1.6 किलोमीटर प्रति सेकंड तथा निचली क्रस्ट में 6.9 किलोमीटर प्रति सेकंड होती है। यह अंतर दबाव की अधिकता के कारण आता है। इस असंबद्धता को कोनरार्ड असंबद्धता कहते हैं।
• क्रस्ट का आयतन पृथ्वी के आयतन का 1% है। • पृथ्वी के द्रव्यमान में क्रस्ट का योगदान नगण्य है।
(2.) मैण्टिल (Mantle):-
• मैण्टिल का विस्तार मोह असांतत्य से लेकर 2900 किलोमीटर की गहराई तक पाया जाता है। • मैण्टिल को दो भागों में विभाजित किया गया है।
(अ) ऊपरी मैण्टिल या दुर्बलतामंडल (Upper Mantle or Asthenosphere)
(ब) निचला मैण्टिल (Lower Mantle)
• ऊपरी मैण्टिल या दुर्बलतामंडल (Upper Mantle or Asthenosphere) :- मैण्टिल का ऊपरी भाग अर्थात ऊपरी मैण्टिल दुर्बलतामंडल कहलाता है। दुर्बलता मंडल का विस्तार 100 किलोमीटर से 200 किलोमीटर के मध्य पाया जाता है। ज्वालामुखी उद्गार के समय जो लावा धरातल पर पहुंचता है, उसका मुख्य स्रोत दुर्बलतामंडल ही है। दुर्बलता मंडल का घनत्व 3.4 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर से अधिक है।
📝... मोहो असंबद्धता (Moho Discontinuity) :- निचली भूपर्पटी एवं ऊपरी मैण्टिल के मध्य भूकम्पीय लहरों की गति में अंतर देखने को मिलता है। निचली क्रस्ट में प्राथमिक तरंगों की गति 6.9 किलोमीटर प्रति सेकंड की गति बढ़कर 7.9 किलोमीटर से 8.1 किलोमीटर प्रति सेकंड तक हो जाती है। इस प्रकार निचली क्रस्ट एवं ऊपरी मैण्टिल के मध्य असंबद्धता का सृजन होता है। इस असंबद्धता का पता सर्वप्रथम 1909 में A. मोहरविकिक ने लगाया था। अतः इसे मोहरविकिक असंबद्धता कहते हैं। यह असंबद्धता पदार्थों के बदलाव के कारण पायी जाती है।
📝.. निम्न गति का मंडल (Zone of low velocity) :- ऊपरी मेंटल में भूकम्पीय लहरों की गति मंद पड़ जाती है। अतः इस भाग को निम्न गति का मंडल भी कहते हैं।
📝.. रेपेटी असंबद्धता (Repti Discontinuity) :-ऊपरी मैण्टिल एवं निचले मैण्टिल में दबाव की अधिकता के कारण भूकम्पीय लहरों की गति में अंतर पाया जाता है। इस अंतर का पता सर्वप्रथम रेपेटी नामक विद्वान ने लगाया था।अतः इस असंबद्धता को रेपेटी
असंबद्धता कहते हैं।
• यह परत पृथ्वी के कुल आयतन का 83% भाग एवं द्रव्यमान के 68% भाग का प्रतिनिधित्व करती है।
(3.) क्रोड़ (Core) :-इसका विस्तार 2900 से 6371 किलोमीटर तक पाया जाता है।
📝... गुटेनबर्ग विसर्ट असंबद्धता (Guttenberg wiechert Discontinuity) :- निचले मैण्टिल एवं बाहरी क्रोड़ के मध्य लहरों की गति में अंतर देखने को मिलता है। निचले मैण्टिल के आधार पर प्राथमिक तरंगों की गति में अचानक वृद्धि होती है और यह बढ़कर 13.6 किलोमीटर प्रति सेकेंड हो जाती है। गति में यह परिवर्तन चट्टानों के घनत्व में अंतर को दर्शाता है। इस असंबद्धता को गुटेनबर्ग विसर्ट असंबद्धता कहते हैं। इस असंबद्धता का कारण पदार्थों में बदलाव है।
• क्रोड़ का आयतन पृथ्वी के कुल आयतन का 16% है।
• यह परत भारी पदार्थों से निर्मित होने के कारण पृथ्वी के कुल द्रव्यमान में इसका योगदान 32% है।
• संरचना की दृष्टि से इस परत को दो उप विभागों में विभक्त किया गया है।
(अ) बाहरी क्रोड़ (Outer Core) :- इस परत की गहराई 2900 से 5150 किलोमीटर तक पायी जाती है। यह परत तरल अवस्था में है। इसमें S-wave प्रवेश नहीं करती है। किस परत में प्राथमिक तरंगों की गति 10 किलोमीटर प्रति सेकंड पायी जाती है।
(ब ) आंतरिक क्रोड़ (Inner Core) :- इस परत की गहराई 5150 से 6371 किलोमीटर तक है। यह परत ठोस अवस्था में पायी जाती है। इस परत में प्राथमिक तरंगों की गति 11.23 किलोमीटर प्रति सेकंड पायी जाती है। इस परत का निर्माण मुख्य रूप से निकेल और लोहा से हुआ है।
📝... लैहमैन असंबद्धता (Lahimen Discontinuity) :- Outer Core एवं Inner Core में भूकम्पीय लहरों की गति में अंतर आ जाता है। यहाँ प्राथमिक तरंगों की गति 10 किलोमीटर प्रति सेकंड से बढ़कर 13.6 किलोमीटर प्रति सेकंड हो जाती है। इस असंबद्धता की खोज सर्वप्रथम लैहमैन ने की थी। अतः इसे लैहमैन असंबद्धता कहते हैं।
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